जून का पूरा महीना पहाड़ों में बिताया अनेकों ग्रामीणों से बातें करने का मौका मिला | जून में प्रवासी उत्तराखंडी भी अपनी माटी का लुत्फ़ उठाने जन्मभूमि आते हैं | बातें करते करते हम पहाड़वासी बहुत जल्दी सुख दुःख के साथी बन जाते हैं और अपनी समस्या का समाधान एक दूसरे से पूछ लेते हैं | इन प्रवासियों में ज्यादातर ने जन्मभूमि आने के कारण देव पूजन ही बताया | पहाड़ की ठंडी और स्वच्छ आबो हवा, नाते रिश्तेदारों से मिलन, तीर्थाटन, पहाड़ी उत्पादों के स्वाद का आनंद आदि तो किसी ने भी नहीं कहा | लोगों के मुंह से जागर, पुच्छ्यारा या गनुटुवे या फिर “देवता लग गया” वाली बातें ही सुनने को मिलीं। कोई कह रहा था कि सात पीढ़ी पहले वाली अम्मा आ रही हैं, तो कोई कह रहा था कि तीन पीढ़ी पहले देवरानी-जेठानी अम्मा की लड़ाई का दोष मिल रहा है | किसी ने बताया कि पड़ोसी ने घात डाल दी थी तो उसके कारण उन्हें काफी नुकसान हो रहा है। पहाड़ों में सात पीढ़ी पहले के भूत वाली बात तो मानो हर घर की बात हो गई है। यह सुनकर ऐसा लग रहा है कि हम कहाँ जा रहे हैं? हमारे समाज की दशा और दिशा क्या हो रही है?
भारत के समाज में भूत, पितर और ईष्टदेवता की अवधारणाएँ गहराई से जमी हुई हैं। इन तीनों में फर्क समझना जरूरी है ताकि हम सही दिशा में अपनी आस्था रख सकें और अंधविश्वास से बच सकें। हाल ही में हाथरस में घटित दर्दनाक घटना से हमें यह सीखने की आवश्यकता है कि हमें केवल भगवान में विश्वास रखना चाहिए, न कि किसी प्रकार के ढकोसलों में। हमारे समाज में भूत, पितर और ईष्टदेवता के नाम पर कई धर्मात्मा अपने स्वार्थ के अनुसार इनकी व्याख्या करते हैं। सर्वप्रथम हमें इनकी सही पहचान करना आवश्यक है। भूत आमतौर पर मरे हुए लोगों की आत्माओं के रूप में देखे जाते हैं जो किसी कारणवश शांति नहीं पा सके। भारतीय समाज में यह धारणा है कि भूत अनिष्टकारी होते हैं और उनसे डरने की आवश्यकता है। पितर हमारे पूर्वज होते हैं, जिनकी आत्माओं का सम्मान और पूजा की जाती है। पितरों को आशीर्वाद देने वाले और परिवार की रक्षा करने वाले माने जाते हैं। पितरों की पूजा पितृ पक्ष में विशेष रूप से की जाती है। ईष्टदेवता वे देवी-देवता होते हैं जिन्हें व्यक्ति विशेष रूप से अपने आराध्य मानता है और उनकी पूजा करता है। ये देवता व्यक्ति की इच्छाओं को पूर्ण करने और उसे जीवन में मार्गदर्शन देने के लिए माने जाते हैं।
आज के इस लेख में हम विज्ञान, तर्क-वितर्क और प्रश्नोत्तर करने से पहले अपनी आँखों देखी और कानों सुनी कुछ मूर्त घटनाओं को समझेंगे, फिर आज के समाज की दशा और दिशा का मूल्यांकन करेंगे। मेरा उद्देश्य किसी की भावनाओं को आहत करना नहीं है और न ही किसी का उपहास उड़ाने की हिम्मत कर सकता हूँ। मेरा ध्यान केवल यह जानने पर है कि इस छद्म विज्ञान का आधार क्या है?
श्री रतन सिंह जी की कहानी सुनकर मेरे रोंगटे खड़े हो गए। उनके चाचा मुंबई में काम करते थे, और उनके पिता ने उनकी शादी तय कर दी थी। दुल्हन बिना दूल्हे के ही ससुराल लाई गई। बिना पति से मिले, वह कई सालों तक ससुराल में रही, लेकिन पति मुंबई से घर नहीं आया। इस अभागिन को ससुराल की देहली छोड़नी पड़ी और मायके लौटना पड़ा। मायके में ही पति के लौटने की आशा में उसने दम तोड़ दिया। आज करीब 70 सालों बाद उसकी भटकती आत्मा रतन सिंह के परिवार में मिल रही है। गांव के बुजुर्गों से पूछने पर यह घटना सत्य पाई गई। यहां पर पूछ्यारे की बात अक्षरसः सत्य पाई गई, यह रास्ता दिखाने वाले पूछ्यारे के इष्टदेव थे और वह अतृप्त आत्मा शायद भूत रूप में थी। यहां पर वैज्ञानिक दृष्टिकोण काम नहीं करता है।
ऐसी ही एक हृदय विदारक घटना सुदूर मोलेखाल के केशव ने बताई। उसने बताया कि उसकी दादी जब गर्भवती थी तो वह प्रसव पीड़ा से कराह रही थी। गांव की दाई अम्मा प्रसव पीड़ा से मुक्ति नहीं दिला पाई, तो उन्हें दादा जी और एक दूसरे व्यक्ति रानीखेत बस में ले गए। वहां अस्पताल की चौखट में ही दादी ने दम तोड़ दिया। दादा जी और वह व्यक्ति उनकी लाश को अस्पताल के ही नजदीक कहीं पर गाड़कर घर आ गए, क्योंकि उन दिनों वहां अन्य सुविधाएं नहीं थीं और गरीब की भी मजबूरी थी। आज करीब अस्सी सालों बाद वह आत्मा कह रही है कि “मैं नग्न हूँ। मेरा श्राद्ध करो और तर्पण करो।” यह बात भी बहुत खोजबीन करने पर सत्य पाई गई। केशव के घर वालों ने एक मृत शरीर की तरह दादी का क्रियाकर्म किया और वह बता रहा था कि उसके परिवार की अशांति दूर हो गई है।
इन घटनाओं से हमें यह सोचने पर मजबूर होना चाहिए कि हम विज्ञान और तर्क के युग में भी ऐसी मान्यताओं में क्यों उलझे हुए हैं। इन्हें मानना और न मानना हमारी स्थिति “इधर खाई, उधर गड्ढा” जैसी कर देता है। राजा भगीरथ भी तो अपने पुरखों की मुक्ति के लिए भगवान शिव से गंगा को धरती पर लाए थे। रतन और केशव जैसे न जाने कितने प्रतापी होंगे जो भटकती आत्माओं की मुक्ति के लिए प्रयास कर रहे होंगे। लेकिन यह प्रयास तभी करने चाहिए जब यह सत्य घटना पर आधारित हो। कई बार हमें जालसाजी और अंधविश्वास का शिकार भी होना पड़ता है।
मुझे कई जानकारों से बात करने का मौका मिला। उन्होंने बताया कि जिस तरह हमारा पेशा हर प्रकार के बच्चों को पढ़ाना है, उसी तरह उनका काम “हुड़की की थाप” पर जो भी तरंगवान हो उसे नचाना है। वे कहते हैं कि यह एक विद्या है। संगीत और धुन से ही वे सबको नियंत्रित करते हैं। उनका यह भी मानना था कि आजकल शराब और गाँजे के कारण कुछ लोग इस विद्या का गलत उपयोग कर रहे हैं। उनका स्पष्ट मानना था कि जिस किसी का भी आह्वान किया जाता है वह किसी न किसी रूप में प्रकट होता ही है।
आज भी यही प्रश्न मेरी आँखों के सामने एक पूछ्यारे द्वारा बताई गई बात पर उठता है कि कैसे रामगंगा के श्री बाला दत्त जी ने केवल चावल के दानों को देखकर बता दिया कि श्री सोहन जी और सीवान जी की मृत्यु हो गई है? वह कौन सा ईष्टदेव होगा जो पूर्व में घटित घटना का जिक्र कर देता है? अखिर यह कौन सी विद्या है? इस प्रश्न पर पूछ्यारा कहता है कि यह उनके ईष्टदेव कह रहे हैं, ब्यक्तिगत रूप में उन्हें कुछ भी पता नहीं होता है।
कई बार ऐसा होता है कि पूछ्यारा उसके पास गए व्यक्ति को अपनी बातों से ऐसा भ्रम देता है कि व्यक्ति अपने ही परिजनों पर अविश्वास करने लगता है। कई बार पूछ्यारा केवल अनुमान लगाता है, और अनुमान सही लगा तो पूजा पक्की, बकरी की दावत और मोटी भेंट पक्की। इसी तरह के अनुमानवादी पूछ्यारे की सलाह पर लोगों ने लहलहाते खेतों का परित्याग किया है। आलिशान घरों को भूतिया घोषित करने वाले भी अंधविश्वास में रहते हैं। हमें मूल्यांकन करते समय मूर्त विज्ञान का सहारा लेना होगा, और यहां पर शायद हमें यह प्रश्न बार-बार पूछना होगा: कि छद्म विज्ञानं के अस्तित्व का आधार क्या है? एक पूछ्यारा कैसे हो सकता है अंतर्यामी ? यह शक्ति कैसे प्राप्त की जा सकती है? एक वैज्ञानिक बनने के लिए व्यक्ति को अनेक प्रयोग करने पड़ते हैं, और एक अंतर्यामी बनने के लिए स्यूडो साइंटिस्ट को आखिर क्या करना पड़ता है? स्यूडो वैज्ञानिक तो हर तरह का रोल जैसे कि डॉक्टर, वकील, शिक्षक, पथ-प्रदर्शक सभी कुछ का दवा करता है , जबकि वैज्ञानिक अपने प्रयोगों और उनके उपयोगों से नाम कमाता है | हमें केवल विज्ञानं और तर्क वितर्क से ही जीवन जीना होगा | बिना किसी को हानि पहुचाये अपने कर्तव्यों का निर्वहन करना होगा तो हमें कभी भी किसी पुच्छयारे या छद्म वैज्ञानिक के पास नहीं जाना पढ़ेगा | अब प्रश्न उठता है कि यह केवल उत्तराखंडी समाज में ही ज्यादा क्यों हो रहा है ? सात पीढ़ी पहले के भूतों का अविष्कारक आखिर कौन रहा होगा, क्योंकि यह कुछ ही साल पहले से पुच्छयारे जी द्वारा बताया जा रहा है | इन पुच्च्यारों द्वारा इतना डराया जा रा है कि इंजिनीयर्स , डॉकटर्स, पत्रकार, प्रोफेसर्स , ब्यवसायी, वकील सभी तो पूजन के नाम पर सात समुन्दर दूर से गांव आ रहे हैं | यह एक मनो वैज्ञानिक कारण भी होता है | एक कारण यह भी हो सकता है कि यह देवभूमि है और यहाँ के कण कण में देव वास है और देवता यहाँ जागृत रूप में हैं | लेकिन यह जो भी कारण हो वह देव पूजन ही होना वाजिब है , सात पीढ़ी पहले का भूत पूजन तो कतई नहीं होना चाहिए | छोटी छोटी बीमारी का कारण देव दोष नहीं होता है यह मौसमी बीमारी भी हो सकती है | किसी की भी मृत्यु का कारण देव नहीं होता है, देव तो रक्षक होते हैं | घात प्रतिघात, नकारात्मक ऊर्जा प्रवाहित करना हो सकता है , जो कि दो धारी तलवार या दो मुहीं सांप जैसा है , यानी जैसा बोयेंगे वैसा पाएंगे | हमें समाज के उन वर्गों से सीख लेने की नितांत आवश्यकता है जो केवल अपने ईष्टबंदन में विश्वास करते हैं और अन्धविश्वास और कोरे परम्पराओं से दूर रहते हैं