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हिंदी दिवस पर विशेष: हिंदी मर नहीं रही—हम उसे अपंग बना रहे हैं- शीशपाल गुसाईं 

हम सब कहते हैं—“हिंदी को बढ़ावा दीजिए।” पर भीतर-भीतर, हमारे घरों में, भोजन की मेज़ से लेकर मोबाइल की स्क्रीन तक, रोज़मर्रा के छोटे-छोटे फ़ैसलों में, अंग्रेज़ी को हम दर्जा देते हैं—स्टेटस का, “सभ्यता” का, “सफलता” का। चाय उबल रही है तो “केटल” की चर्चा हो जाती है, बरतन माँगे तो “बाउल” और “स्पून” निकल आते हैं, कमरे का ज़िक्र हो तो “ड्रॉइंग रूम” मूँछों पर ताव देता है, और बच्चे को पड़ोसी सुन रहा हो तो हम अचानक “होमवर्क” पूछ बैठते हैं—जैसे “खाता-बही” पूछना किसी पिछड़ेपन का प्रमाण हो। घर में ही दिन भर में ऐसे सैकड़ों छोटे-छोटे निर्णय हमारी भाषायी आत्मा को दूसरे दर्जे में ढकेल देते हैं—बिना शोर, बिना बहस, बिना अपराध-बोध।

तो क्या हमारी हिंदी मर रही है? मरना कोई एक झटके में नहीं होता। मरना एक धीमी, निरंतर, अदृश्य क्षय है—जब घर की भाषा, काम की भाषा नहीं रहती; जब प्रेम की भाषा, पेशे की भाषा के सामने झेंपने लगती है; जब साहित्य, सिनेमा और लोककथा की ऊष्मा, सीवी, ईमेल और प्रेज़ेंटेशन की चमक से डरने लगती है। सच कहें तो हिंदी मर नहीं रही—हम उसे अपंग बना रहे हैं: उसके पाँव अंग्रेज़ी के लिए निकाल दिए, हाथ बाजार को दे दिए, हृदय को “हिंग्लिश” की पट्टी बाँध दी, और फिर कहते हैं—“देखो, इसे चलना नहीं आता!”

भाषाएँ शब्दों की थैलियाँ नहीं; समुदाय का आत्मविश्वास हैं। भाषा मरती तब है जब किसी समाज को लगता है कि उसकी भाषा रोटी नहीं दिला सकती, मान नहीं दिला सकती, भविष्य नहीं दिला सकती। शब्दों का उधार लेना भाषा की मृत्यु नहीं, बल्कि उसका स्वभाव है—हिंदी ने फ़ारसी, अरबी, संस्कृत, उर्दू, अंग्रेज़ी—सबसे शब्द लिए। समस्या उधार नहीं, उपेक्षा है। हिंदी हमारे घर में उपस्थित है, पर काम-काज की प्रभुता अंग्रेज़ी की है। प्रेम-पुकार, लोकगीत, त्योहार—हिंदी में; लेकिन नौकरी, प्रवेश परीक्षा, अनुबंध, प्रस्तुतीकरण—अंग्रेज़ी में। स्मृति हिंदी में, सॉफ़्टवेयर अंग्रेज़ी में। जब तक यह खाई बनी रहेगी, हिंदी को हम सांस्कृतिक विरासत की अलमारी में बंद कर रखेंगे, और जीवन की मशीनरी अंग्रेज़ी से चलती रहेगी।।भाषा तब नहीं मरती जब वह “स्पून” जैसे शब्द ले लेती है; वह तब मरती है जब वह रोज़गार, ज्ञान और शासन से बाहर कर दी जाती है।

सरकारी भाषण हिंदी में, पर परिपत्र, नोटशीट, टेंडर अंग्रेज़ी में; जनता की अर्जी हिंदी में, पर निर्णय अंग्रेज़ी में—यह द्विधा न्याय के लोकतांत्रिक भाव को चोट पहुँचाती है। सभी विभागों में द्विभाषिक फाइल-प्रणाली; टेंडर/आरएफ़पी का प्रामाणिक हिंदी संस्करण कानूनी वैधता के साथ; अदालतों में दुभाषियों के साथ हिंदी-आधारित आदेश/सारांश; कर्मचारी प्रशिक्षण—टेक्निकल हिंदी लेखन के लिए नियमित वर्कशॉप कराये जाने चाहिए। जब नीति-निर्माण की भाषा हिंदी होगी, तभी हिंदी राष्ट्रभाषा-बहस से बाहर निकलकर कार्य-भाषा बनेगी।

हिंदी की मृत्यु का प्रश्न उत्तेजक है, पर भ्रामक भी। भाषा मरती नहीं; उसके अधिकार छीने जाते हैं—काम के, ज्ञान के, न्याय के, तकनीक के। समाधान अंग्रेज़ी-विरोध नहीं; हिंदी-समर्थ, बहुभाषिक-विकास है। हमें वह देश/राज्य/घर बनना होगा जहाँ—घर में गढ़वाली-कुमाऊँनी की हँसी गूँजे, समुदाय में हिंदी का आत्मविश्वास चमके, दुनिया से अंग्रेज़ी का संवाद बेझिझक हो, और तीनों के बीच समान सम्मान का आवागमन हो।

जब फाइल की भाषा, अदालत का सार, स्टार्टअप का इंटरफ़ेस, और स्कूल का ब्लैकबोर्ड—हिंदी में सहज उपलब्ध होंगे; जब रोज़गार की तैयारी हिंदी में संभव होगी; जब नीति की बहस हिंदी में होगी—तभी हिंदी “भावना” से “सामर्थ्य” बनेगी। अंततः, भाषा घमंड नहीं, गौरव है; दीवार नहीं, पुल है। अंग्रेज़ी उस पुल का एक छोर हो सकती है, पर दूसरा छोर हिंदी है—और उसके नीचे बह रही धाराएँ हैं हमारी पहाड़ी बोलियाँ। पुल तभी अडिग रहेगा जब दोनों किनारे मजबूत हों। नई पीढ़ी के हाथ में यह काम है—हिंदी को स्टेटस नहीं, स्टेटस-फंक्शन दिलाना। जब हिंदी फाइल और फ़ैक्टरी, कोड और कोर्ट, लैब और लॉन्च की भाषा बनेगी—तब कोई यह पूछने की ज़रूरत नहीं समझेगा कि “हिंदी मर रही है क्या?” तब जवाब स्वतः होगा—हिंदी जी रही है—काम में, कमाई में, करुणा में। आइए, हम सब मिलकर हिंदी को सम्मान दें। मेरी ओर से आप सभी को हिंदी दिवस की हार्दिक शुभकामनाएँ।

शीशपाल गुसाईं , देहरादून।

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