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Monday, October 13, 2025
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 जाति का जहर: मंदिर से सुप्रीम कोर्ट तक, दलितों पर अत्याचार का काला साया

आधुनिकता’ का ढोंग? हम चाँद पर झंडा गाड़ चुके हैं, लेकिन मंदिर के द्वार पर अभी भी वही पुरानी दीवारें खड़ी हैं

सूरज की किरणें चाँद पर पहुँच चुकी हैं, मानव ने तारों को छू लिया है, फिर भी धरती पर एक छाया अभी भी घनी है—वह छाया जो 3500 बरसों से दलितों के सिर पर मंडराती आ रही है। यह छाया न मिटती है, न झुकती है; बस, रूप बदलती रहती है। कभी लाठियों का रूप धारण कर, कभी पदोन्नति की चाबी छीनकर, कभी एक मंदिर के द्वार पर खड़ी होकर। और आज, जब यह छाया हरियाणा के एक वरिष्ठ आईपीएस अधिकारी वाई. पुरण कुमार के जीवन पर पड़ी, तो वह न केवल एक व्यक्ति का अंत हुआ, बल्कि पूरे समाज का आईना टूट गया। एक ऐसा आईपीएस, जो अपराधियों को सलाखों के पीछे धकेलने वाला था, खुद को सलाखों से आज़ाद करने के लिए गोली चला बैठा। क्यों? क्योंकि मंदिर में एक नज़र दौड़ाने की सजा उसे वर्षों की मानसिक यातना मिली।

कल्पना कीजिए उस दृश्य को—अगस्त 2020, शाहज़ादपुर पुलिस स्टेशन का मंदिर। एक साधारण छुट्टी का दिन। पुरण कुमार, एक दलित अधिकारी, भगवान के दर्शन के लिए पहुँचे। क्या गुनाह था उनका? बस इतना कि उनकी जन्म-जाति ने उन्हें ‘अछूत’ का तमगा दे रखा था। वरिष्ठों की नज़रों में वह मंदिर का भक्त नहीं, एक अपराधी थे। उसी दिन से शुरू हुई एक सुनियोजित साजिश: छुट्टी का आवेदन ठुकराना, पिता की मृत्युशय्या पर पहुँचने न देना, काल्पनिक पदों पर ठूंसना, झूठे मुकदमों का जाल बिछाना। उनकी पत्नी, आईएएस अमनीत पी. कुमार, जो जापान में मुख्यमंत्री के प्रतिनिधिमंडल के साथ थीं, जब लौटीं तो पाया कि उनके पति का शव चंडीगढ़ के घर में पड़ा है, और नौ पृष्ठों का वह ‘अंतिम पत्र’—एक चीख, जो पैंतीस सौ बरसों की पीड़ा को समेटे हुए था। “जातिगत भेदभाव, मानसिक उत्पीड़न, सार्वजनिक अपमान”—ये शब्द नहीं, खून से सने हुए थे।

क्या कहें इसकी? ‘आधुनिकता’ का ढोंग? हम चाँद पर झंडा गाड़ चुके हैं, लेकिन मंदिर के द्वार पर अभी भी वही पुरानी दीवारें खड़ी हैं—वे दीवारें जो अनपढ़ पुजारियों ने नहीं, बल्कि हमारी सामूहिक चेतना ने खड़ी की हैं। वे पुजारी जो मंदिर बनाते हैं, लेकिन भगवान के नाम पर मनुष्य को बाहर ठहराते हैं। पुरण कुमार जैसे सीनियर अधिकारी को, जो राज्य की कानून-व्यवस्था संभालते थे, मंदिर में घुसने की सजा मिले—यह कैसी विडंबना है? क्या यही है हमारा ‘विकास’? चाँद की यात्राएँ बंद करो, अगर धरती पर एक दलित की आँखें नम रहेंगी। दिखावा मत करो—जय हो के नारे लगाओ, विज्ञान का बंटाधार करो, लेकिन नियत न बदलाओ तो कुछ नहीं बदलेगा। पाँच हजार बरसों से हमारी जड़ें जहर से सींची जा रही हैं; नाम बदलते रहो, लेकिन हृदय न बदलो तो दलित का दर्द कभी न मिटेगा।

यह घटना केवल पुरण कुमार की नहीं, हर उस दलित की कहानी है जो आईएएस-आईपीएस बनकर भी ‘नीचे’ ही रहता है। राहुल गांधी ने कहा, “यह सामाजिक विष का प्रतीक है”—सच। मल्लिकार्जुन खड़गे ने चेतावनी दी, “मनुवादी व्यवस्था का अभिशाप”—सच। अरविंद केजरीवाल ने मांग की, “दोषियों को कठोर सजा”—सच। राष्ट्रीय अनुसूचित जाति आयोग ने स्वत: संज्ञान लिया, एफआईआर दर्ज हुई—डीजीपी शत्रुजीत कपूर और रोहतक एसपी नरेंद्र बिजरनिया पर। लेकिन क्या ये कदम पर्याप्त हैं? नहीं। यह तो बस शुरुआत है। हमें चाहिए एक ऐसा समाज जहाँ मंदिर के द्वार जाति न देखें, पदोन्नति जाति न देखे, और जीवन जाति न देखे।

पुरण कुमार की बेटी ने अपने पिता का शव पाया—वह दृश्य सोचिए। एक बच्ची, जो अपने हीरो को खो बैठी। एक पत्नी, जो विदेश से लौटकर विधवा बनी। यह दर्द व्यक्तिगत नहीं, सामूहिक है। कृपया, चुप न रहें। चाँद की चमक में खो न जाएँ। दलितों पर अत्याचार बंद हो—नाम से नहीं, कर्म से। जय हो न कहें, न्याय करें। क्योंकि अगर एक आईपीएस टूट सकता है, तो कल्पना कीजिए उस अनगिनत दलित की क्या हालत होगी, जो सड़कों पर संघर्ष कर रहा है। समय है, जड़ें काटने का। अन्यथा, यह छाया हमें सबको निगल लेगी।

◆ घटना नम्बर 2
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सूरज की पहली किरणें सुप्रीम कोर्ट की ऊँची दीवारों पर पड़ रही थीं, लेकिन उस दिन, 6 अक्टूबर 2025 को, न्याय का मंदिर एक अपमान की गवाह बना। कल्पना कीजिए वह दृश्य—कोर्ट रूम नंबर 1, जहाँ देश का सर्वोच्च न्यायाधीश, भूषण रामराव गवई, बेंच पर विराजमान थे। एक 71 वर्षीय वकील, राकेश किशोर, ने ‘सनातन धर्म’ के नाम पर अपना जूता उछाला। वह जूता न केवल न्याय की गरिमा पर चोट पहुँचाने वाला था, बल्कि एक दलित CJI की पहचान पर तीर की तरह चुभा। गवई साहब, जो महाराष्ट्र के एक साधारण दलित परिवार से उठे, कड़ी मेहनत से इस ऊँचाई तक पहुँचे—उनके पिता, रामराव गवई, केरल और बिहार के राज्यपाल रहे। लेकिन क्या यह ऊँचाई कुछ लोगों को हजम नहीं हुई? जूता उछालने वाला वकील चिल्लाया, “सनातन के लिए!” लेकिन सच्चाई यह थी कि यह जाति का बदला था, छिपा हुआ, लेकिन घातक।

CJI गवई ने उस पल को संभाला, जैसे वे हमेशा संकटों को संभालते आए हैं। “मैं स्तब्ध था,” उन्होंने बाद में कहा, लेकिन उनकी आँखों में न गुस्सा था, न बदला। बस एक गहरी उदासी—वह उदासी जो 3500 बरसों से दलितों के चेहरे पर बसी है। कोर्ट ने तुरंत प्रतिक्रिया दी: वकील को सस्पेंड कर दिया गया, FIR दर्ज हुई—IPC की धारा 353 (न्यायालय की अवमानना) और 504 (उकसावा) के तहत। लेकिन CJI ने माफ़ी दे दी—उस वकील को, जो खुले घूम रहा है। कुछ रिपोर्ट्स कहती हैं कि मामला अभी भी लंबित है, जांच चल रही है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने फोन किया, सोनिया गांधी ने निंदा की, लेकिन क्या यह काफी है? जब जूता उछलता है एक दलित CJI पर, तो यह केवल एक घटना नहीं, पूरे संविधान का अपमान है।

और फिर आया वह मोड़, जो इस घाव को और गहरा कर गया। आज 9 अक्टूबर 2025, गोवा के पणजी में एक प्रेस कॉन्फ्रेंस। महाराष्ट्र के और केंद्र सरकार के मंत्री, रामदास अठावले—खुद एक दलित नेता, सामाजिक न्याय मंत्रालय के राज्यमंत्री—उठे और बोले, “यह आश्चर्यजनक है कि वकील को अभी तक गिरफ्तार क्यों नहीं किया गया?” उनकी आवाज़ में दर्द था, गुस्सा था। “CJI गवई दलित हैं, इसलिए यह हमला हुआ। ऊँची जाति के कुछ लोग यह बर्दाश्त नहीं कर पा रहे कि एक दलित इस मुकाम पर पहुँच गया।” अठावले ने मांग की—SC/ST (अत्याचार निवारण) अधिनियम के तहत केस दर्ज हो। “पहली बार किसी CJI पर ऐसा हमला हुआ। यह जातिगत हिंसा है, संविधान का अपमान।” उनके शब्दों में वह सच्चाई झलक रही थी जो छिपी रह जाती है—कि दलितों का उदय, चाहे कितना भी योग्य हो, कुछ लोगों को काँटे की तरह चुभता है। अठावले का यह बयान विपक्ष को हवा दे सकता है, लेकिन यह सही है: अगर जूता जाति के नाम पर उछला, तो सजा भी जातिगत न्याय की होनी चाहिए। जारी…….

■ शीशपाल गुसाईं

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