29.9 C
Dehradun
Tuesday, August 19, 2025
Google search engine
Homeराज्य समाचारविजय जड़धारी: बीजों के जादूगर और पहाड़ की उम्मीद को स्व. इंद्रमणी...

विजय जड़धारी: बीजों के जादूगर और पहाड़ की उम्मीद को स्व. इंद्रमणी बडोनी स्मृति सम्मान से किया गया विभूषित

(इंद्रमणी बडोनी स्मृति सम्मान 2025 पर विशेष लेख)

उत्तराखंड की धरती पर जब भी लोक चेतना, संघर्ष और प्रकृति संरक्षण की बात होगी—दो नाम हमेशा गूंजेंगे। पहला, उत्तराखंड राज्य आंदोलन के जननायक इंद्रमणी बडोनी, और दूसरा, बीज बचाओ आंदोलन के प्रणेता विजय जड़धारी। आज जब विजय जड़धारी को स्व. इंद्रमणी बडोनी स्मृति सम्मान से विभूषित किया गया, तो यह महज एक व्यक्ति का सम्मान नहीं, बल्कि पारंपरिक कृषि, बीजों की विरासत और प्रकृति संरक्षण की पूरी विचारधारा का अभिनंदन है।

एक साधारण किताब की दुकान से आंदोलन के सफर तक

सन 1974। चंबा (टिहरी गढ़वाल) में विजय जड़धारी के पिता ने उनके लिए किताबों की एक दुकान खोली। यह दुकान उनकी रोज़ी-रोटी हो सकती थी, मगर नियति ने उन्हें एक बड़ा मकसद दिया। इसी वर्ष वह श्री सुंदरलाल बहुगुणा और अन्य साथियों के साथ अस्कोट–आराकोट पदयात्रा पर निकले—यह यात्रा महज़ क़दमों का सफ़र नहीं, बल्कि चेतना की एक लौ थी। शराबबंदी, महिला जागरण, चिपको आंदोलन और ग्राम स्वराज की पुकार ने जड़धारी को झकझोर दिया। उसके बाद उन्होंने दुकान छोड़ दी और जीवन को समाज सेवा, प्राकृतिक खेती और आंदोलन की राह में समर्पित कर दिया।

चिपको आंदोलन का योद्धा

1977 से 1980 तक विजय जड़धारी ने आदवाणी, बडियारगढ़, लासी, ढुंगमंदार और खुरेत जैसे जंगलों में चल रहे चिपको आंदोलन में सक्रिय भूमिका निभाई। बडियारगढ़ के जंगल में जब वह और कुंवर प्रसून अकेले पेड़ों को बचाने में जुटे थे, तब उन्हें वन माफियाओं ने न केवल धमकाया, बल्कि पेड़ों पर बाँध दिया। भूखे-प्यासे रहकर भी वह अपनी प्रतिबद्धता पर डटे रहे। सबसे भयावह घटना 10 जनवरी 1979 को हुई, जब जड़धारी जी एक पेड़ से चिपके थे। वन निगम के अधिकारी ने मजदूरों के साथ मिलकर उन्हें आतंकित करने की नीयत से आरा चलाया और जड़धारी की टांग तक को चीरने का प्रयास किया। पजामा फट गया, घुटनों तक आरे के दांत चुभे और वह भीषण पीड़ा से तड़प उठे—मगर पेड़ को कटने नहीं दिया। 9 फरवरी 1978 को उन्हें 23 साथियों के साथ गिरफ्तार कर 14 दिन की जेल भी काटनी पड़ी। यह संघर्ष सिर्फ जंगल बचाने का नहीं, बल्कि हिमालय की आत्मा को बचाने का संकल्प था।

खनन माफिया के खिलाफ लड़ाई

चिपको आंदोलन के बाद जड़धारी का ध्यान उस बड़े खतरे पर गया, जिसने हिमालय की नाड़ियों को सुखाने की ठान रखी थी—चूना पत्थर खनन। उन्होंने हेवलघाटी, नागणी, खाड़ी-जाजल और पुट्टड़ी में मोर्चा खोला। नागणी में उन पर खनन माफियाओं ने हमला किया। नाहीकलां (दून घाटी) और कटाल्डी गांव की खान को बंद कराने में उनकी लड़ाई निर्णायक रही। कटाल्डी की खान तो पूरे दो दशक तक लड़ी गई जंग के बाद 2012 में बंद हो पाई—जिसका श्रेय जड़धारी के संघर्ष को जाता है।

बीज बचाओ आंदोलन: धरती को पुनर्जीवित करने का प्रयास

1980 के दशक में हरित क्रांति के दुष्प्रभाव सामने आने लगे। रासायनिक खाद, बाहरी संकर बीज और बाजार की निर्भरता ने किसानों को गुलाम बना दिया। जड़धारी ने इसी दौर में बीज बचाओ आंदोलन (BBA) की शुरुआत की। यह आंदोलन किसी संस्थागत ढांचे या फंड पर आधारित नहीं था, बल्कि किसानों की चेतना पर टिका एक जन-आंदोलन था। उन्होंने “बारहनाजा” पद्धति का पुनरुद्धार किया—एक पारंपरिक मिश्रित खेती प्रणाली, जिसमें एक खेत में 12 अनाज और दालें उगाई जाती हैं। यह पद्धति सिर्फ खेती नहीं, बल्कि भोजन की संप्रभुता और जैव विविधता का कवच है। आज उनके संग्रह में धान, झंगोरा, मंडुवा, गहत, भट्ट, तिलहन, मसाले और दालों की सैकड़ों किस्में हैं। सबसे बड़ी बात यह कि ये बीज बेचे नहीं जाते, बांटे जाते हैं—क्योंकि बीज का धर्म है अंकुरित होना, फैलना और सबको जीवन देना।

सम्मान और पहचान: इंदिरा गांधी पर्यावरण पुरस्कार (2009) ,किर्लोस्कर वसुंधरा सम्मान (2024), अब इंद्रमणी बडोनी स्मृति सम्मान (2025) ये सभी सम्मान न केवल विजय जड़धारी के व्यक्तिगत योगदान का प्रमाण हैं, बल्कि उन किसानों और कार्यकर्ताओं की सामूहिक जीत भी हैं जो पारंपरिक बीजों और पर्यावरण की रक्षा के लिए आज भी संघर्षरत हैं। देहरादून स्थित दून लाइब्रेरी में आयोजित समारोह में जब गढ़रत्न नरेंद्र सिंह नेगी, आचार्य सचिदानंद जोशी और पद्मश्री कल्याण सिंह रावत के करकमलों से विजय जड़धारी को सम्मानित किया गया, तो वह क्षण ऐतिहासिक बन गया।

“इंद्रमणि बडोनी और उत्तराखंड” पुस्तक के लेखक दो विशिष्ट व्यक्तित्व हैं—गिरीश बडोनी और अनिल सिंह नेगी।

गिरीश बडोनी, जो पर्वतीय क्षेत्र में अध्यापक हैं, शिक्षा के साथ-साथ संस्कृति और लोकधरोहर के संरक्षक भी हैं। अपने विद्यालय में वे प्रतिदिन बच्चों को गढ़वाली वंदन गीतों से प्रार्थना कराते हैं, जिससे नई पीढ़ी अपनी जड़ों और मातृभाषा से जुड़ी रहे। वहीं, अनिल सिंह नेगी वर्तमान में विकासनगर में ए.आर.टी.ओ. के पद पर कार्यरत हैं। इतिहास और पुरातत्व के प्रति गहरी रुचि रखने वाले अनिल सिंह नेगी ने इस क्षेत्र में महत्वपूर्ण शोध और लेखन किया है। उन्होंने इतिहास और पुरातत्व पर केंद्रित कई पुस्तकें लिखकर उत्तराखंड की सांस्कृतिक धरोहर को नयी पहचान दी है। इस प्रकार, यह पुस्तक केवल एक साहित्यिक रचना नहीं, बल्कि उत्तराखंड के इतिहास, संस्कृति और आंदोलन की जीवंत धड़कन है, जिसे दो ऐसे लेखकों ने गढ़ा है, जिनके मन और कर्म दोनों ही अपने प्रदेश की जड़ों से गहराई से जुड़े हुए हैं।

* शीशपाल गुसाईं

RELATED ARTICLES

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

spot_img

STAY CONNECTED

123FansLike
234FollowersFollow
0SubscribersSubscribe

Latest News