आपातकाल (1975-1977) एक काला अध्याय था, जब इंदिरा गांधी के नेतृत्व में संजय गांधी के दबाव में राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद ने आपातकाल लागू किया। इसे अधिकांश नेताओं ने असंवैधानिक और लोकतंत्र-विरोधी ठहराया। उत्तराखंड (तब उत्तर प्रदेश का हिस्सा) में इसका व्यापक विरोध हुआ। सैकड़ों लोग जेलों में डाले गए, कई गुमनाम रहे। उत्तराखंड, जो स्वतंत्रता संग्राम, शराबबंदी, और चिपको आंदोलन जैसे जनांदोलनों में अग्रणी रहा, ने आपातकाल के खिलाफ भी साहस दिखाया। चिपको आंदोलन ने तो वैश्विक पहचान बनाई। आपातकाल में उत्तराखंड के लोगों ने लोकतंत्र की रक्षा के लिए अपार संघर्ष किया, जो इतिहास में अमर है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कार्यकर्ता विशेष निशाने पर रहे; कुछ ने जेल की यातनाएँ सहीं, तो कुछ गुप्त रूप से संघर्षरत रहे। नसबंदी अभियान के नाम पर जनता पर अत्याचार हुए। मोती बाजार का संघ कार्यालय, जहाँ 24 जून 1975 को आपातकाल की पूर्व संध्या पर स्वतंत्रता की भावना प्रज्वलित हुई, प्रतिरोध का प्रतीक बना। यह दौर न केवल दमन का था, अपितु लोकतांत्रिक चेतना के जागरण का भी, जिसने देहरादून के गलियारों में स्वाभिमान की अमर गाथा रची।
भगत सिंह कोश्यारी, जिन्होंने अल्मोड़ा और फतेहगढ़ की जेलों में लगभग दो वर्ष (3 जुलाई 1975 से 23 मार्च 1977) बिताए। इस कठिन समय में भी, कोश्यारी ने न केवल अपने साहस का परिचय दिया, बल्कि अपने साहित्यिक और वैचारिक योगदान से अपने साथी आंदोलनकारियों में प्रेरणा का संचार किया। उनके गुरु, सोबन सिंह जीना, इस संघर्ष में उनके साथी और मार्गदर्शक रहे। आपातकाल के दौरान अल्मोड़ा और फतेहगढ़ जेलों में पौने दो वर्ष बिताने वाले भगत सिंह कोश्यारी ने कठोर कारावास को आत्मिक स्वतंत्रता का प्रतीक बनाया। सीमित भोजन, मानसिक दबाव और अनिश्चितता के बावजूद, उनकी वाक्पटुता, सादगी और अटूट विश्वास ने साथी कैदियों में प्रेरणा जगाई। साहित्य, दर्शन और इतिहास पर चर्चाओं के माध्यम से उन्होंने जेल में बौद्धिक और भावनात्मक समर्थन प्रदान किया। उनकी लेखन और वक्तृत्व कला ने सलाखों के बीच भी आशा की किरणें बिखेरीं, जिसने उन्हें एक सच्चा नेता बनाया।
आपातकाल के दौरान अल्मोड़ा जेल में भगत सिंह कोश्यारी के साथ उनके गुरु कुमाऊँ में जनसंघ के संस्थापक सदस्य में एक सोबन सिंह जीना भी बंदी थे। सामाजिक जागृति के प्रतीक जीना जी की सादगी, समाजसेवा और देशभक्ति ने कोश्यारी के विचारों को प्रखर व गहन बनाया। जेल में दोनों की वैचारिक चर्चाएं आपातकाल के दमन के खिलाफ बौद्धिक विद्रोह थीं और उत्तराखंड की सामाजिक-राजनीतिक चेतना को दिशा देती थीं। जीना जी की सामाजिक समरसता व राष्ट्रीय एकता की शिक्षाएं कोश्यारी के लिए मार्गदर्शक बनीं। निराशा के माहौल में उनकी बातचीत ने कैदियों में नई ऊर्जा भरी। यह गुरु-शिष्य का रिश्ता ज्ञान के साथ-साथ साझा संघर्ष और संकल्प का प्रतीक था।
अल्मोड़ा जेल में आपातकाल के बंदी: लोकतंत्र के लिए संघर्षरत योद्धा
1975 के आपातकाल के दौरान जेल में बंद प्रमुख लोगों में पूर्व मंत्री सोबन सिंह जीना, पूर्व मुख्यमंत्री भगत सिंह कोश्यारी, भाजपा नेता पूरन चंद्र शर्मा, गोविंद लाल वर्मा, उक्रांद नेता विपिन त्रिपाठी, गोविंद सिंह बिष्ट, गोवर्धन उप्रेती, नंदन सिंह कपकोटी, गंगा सिंह बिष्ट, शक्ति संपादक धर्मानंद पांडे, मोती राम जोशी, हरिनंदन जोशी, बशीर अहमद, विनोद वर्मा, महेंद्र मटियानी, समाजवादी प्रताप सिंह बिष्ट, गंगा शरण और प्रो.एलसी जोशी शामिल थे। ये सभी लोकतंत्र की रक्षा के लिए संघर्षरत रहे।
आपातकाल में भगत सिंह कोश्यारी की साहित्यिक और वैचारिक उड़ान
आपातकाल (1975-77) के अंधेरे दौर में भगत सिंह कोश्यारी की साहित्यिक प्रतिभा चमक उठी। 1975 में पिथौरागढ़ से शुरू की गई उनकी हिंदी साप्ताहिक पत्रिका ‘पर्वत पीयूष’ जन समस्याओं और सामाजिक जागृति का मंच बनी। आपातकाल में गिरफ्तारी के बावजूद, उनके भाई नंदन सिंह कोश्यारी ने पत्रिका को जीवित रखा, जो कोश्यारी की विचारधारा का प्रतीक थी। अल्मोड़ा और फतेहगढ़ जेलों में बिताए पौने दो वर्षों में उनकी लेखनी और निखरी। उनकी शैली में साहित्यिक सौंदर्य और वैचारिक गहराई का समन्वय था। आपातकाल की दमनकारी नीतियों की आलोचना के साथ-साथ सामाजिक समानता, शिक्षा और ग्रामीण विकास पर उनके विचारों ने कैदियों को प्रेरित किया और पहाड़ के आंदोलनों को दिशा दी। 23 मार्च 1977 को रिहाई के बाद कोश्यारी एक स्थानीय व्यक्तित्व बन चुके थे। आपातकाल के बाद, उन्होंने उत्तराखंड में भारतीय जनता पार्टी को मजबूत किया, दूसरे मुख्यमंत्री बने, और महाराष्ट्र व गोवा के राज्यपाल के रूप में सेवाएं दीं। उनकी सादगी, बौद्धिकता और जनसेवा ने उन्हें ‘भगत दा’ बनाया। उनकी साहित्यिक और वैचारिक विरासत आज भी उत्तराखंड में प्रासंगिक है।
आपातकाल के काले साये में देहरादून की जेलों का दंश
जब 25 जून 1975 को देश पर आपातकाल का काला साया मंडराया, तो देहरादून भी इस तूफान की चपेट में आ गया। लोकतंत्र की आवाज को कुचलने के लिए सत्ता ने अपनी पूरी ताकत झोंक दी थी। देहरादून में बहुत सारे कार्यकर्ताओं को रातों-रात हथकड़ियों में जकड़कर जेलों की सलाखों के पीछे धकेल दिया गया। देहरादून जेल, जो कभी अपराधियों का ठिकाना थी, अब स्वतंत्रता के मतवालों की यातना-गृह बन चुकी थी। यहाँ कठोर कारावास की सजा भोगते हुए जनसंघ और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कार्यकर्ताओं ने अपने अडिग संकल्प और बलिदान से इतिहास के पन्नों पर अमर कथा लिख दी।इनमें सबसे प्रमुख थे प्रोफेसर नित्यानंद, जिन पर मीसा (मेंटेनेंस ऑफ इंटरनल सिक्योरिटी एक्ट) जैसे क्रूर कानून का शिकंजा कसा गया। उन्हें एक वर्ष से अधिक समय तक देहरादून जेल की दीवारों के बीच अमानवीय यातनाएं सहनी पड़ीं। उनकी आत्मा अडिग रही, पर शरीर को सत्ता की बर्बरता ने तोड़ने की हरचंद कोशिश की। दूसरी ओर, श्री देवेंद्र शास्त्री, नीरज मित्तल ने छह माह और आठ दिन तक जेल की सलाखों के पीछे अपनी स्वतंत्रता की कीमत चुकाई। इनके साथ ही देहरादून के अन्य निष्ठावान कार्यकर्ता—भीष्म देव नौटियाल (कौलागढ़), श्याम सुंदर शर्मा, हरीश कंबोज, रवि देव आनंद , शंभू प्रसाद भट्ट (चंबा), रामलाल जैन (विकासनगर), चंदन लाल अग्रवाल (विकासनगर) रणजीत सिंह बिष्ट (राजावाला) और कुंवर सिंह तोमर (भाऊवाला) भी जेल की यातनाओं के साक्षी बने।इन सबके बीच, नित्यानंद स्वामी, जो बाद में उत्तराखंड के प्रथम मुख्यमंत्री बने, भी कुछ समय के लिए जेल में बंद रहे।
[ शीशपाल गुसाईं ]