अक्सर लोग पैरेंटिंग की बातें करते हैं—कैसे बच्चों को पालना है, कैसे उन्हें संस्कार देना है। पर कोई ये नहीं बताता कि जब हमारे माँ-बाप बूढ़े हो रहे हों या घर में कोई अन्य बुजुर्ग हो तो हमें उनके साथ कैसा व्यवहार करना चाहिए। इस जीवन के सबसे महत्वपूर्ण पहलू को बहुत कम लोग समझते हैं।
सोचिए… जिन माँ-बाप ने अपनी ज़िंदगी के सबसे अच्छे साल इज़्ज़त और आत्मसम्मान के साथ जिए, वही जब बुढ़ापे में सुनने में कमजोर होने लगते हैं या आँखें धुंधली होने लगती हैं, तो अपने ही बच्चे कभी-कभी अनजाने में उनका मज़ाक बना देते हैं। उनकी बातें बीच में काट देते हैं, उन्हें अपनी चर्चाओं में शामिल नहीं करते। हम ये नहीं सोचते कि इसका उनके दिल और मानसिक स्थिति पर कितना गहरा असर पड़ता होगा।
जिन्होंने कभी हमारे पीछे-पीछे दौड़-दौड़कर हमें खिलाया, हमारी हर छोटी ख़ुशी के लिए जीए, वही माँ-बाप अगर बुढ़ापे में हमसे प्यार और सम्मान से खाना तक न पाएँ तो ये हमारे लिए शर्म की बात है। सच्चाई यह है कि जैसे-जैसे हम बड़े होते हैं, वैसे-वैसे हमारे माँ-बाप बूढ़े होते जाते हैं। और अपनी व्यस्तता, जिम्मेदारियों और दौड़ती ज़िंदगी में कहीं-न-कहीं हम उन्हें अकेला कर देते हैं।
याद रखिए, मृत्यु तब होती है जब आत्मा शरीर छोड़ देती है… पर अक्सर घर के बुज़ुर्ग हमारे व्यवहार से बहुत पहले ही टूट जाते हैं, जैसे उनके अंदर की ज़िंदगी ही खत्म हो गई हो। यही वह कड़वी हक़ीक़त है जिसे हम नज़रअंदाज़ कर देते हैं।
इसलिए इंसानियत यही कहती है कि अपने घर के बुज़ुर्गों को खुद से दूर न होने दें। उन्हें प्यार दें, उन्हें साथ का एहसास कराएँ। क्योंकि एक समय के बाद माँ-बाप अपनी ख़ुशियों के लिए नहीं, सिर्फ़ अपने बच्चों के लिए जीते हैं। वे हँसना छोड़ देते हैं, सपने देखना छोड़ देते हैं… उनकी सारी उम्मीदें हम पर टिकी होती हैं।
हमारी ज़िम्मेदारी है कि हम उन्हें ज़िंदा रखें—सिर्फ़ साँसों से नहीं, बल्कि ख़ुशियों से।
लेखक – शामली शर्मा, शोधार्थी
कृषि विश्वविद्यालय, पन्तनगर