अक्सर हम देखते हैं कि अधिकतर जगह लोग किसी के प्रति अपना एक अलग रुख रखते हैं, हालांकि इस रुख को बनाने से वह स्वयं में भी इतने स्पष्ट नहीं होते कि वह सही हैं या नहीं बस विचार को बिन विचारे धारण कर लेना ही चुना जाता है।
प्राय: देखने में आता है कि लोग अपने द्वारा इन सृजित विचारों को जोकि दूसरों के प्रति नकारात्मक होते हैं वह बिन पुनर्विचार के थोप दिये जाते हैं। जो कहीं न कहीं एक कुरुती के रुप में आज समाज में फैलते जा रही है।
किसी भी विचार को सृजन करने से पहले उस पर बार-बार सोचना आवश्यक है। यदि हम बिना पूरी तरह समझे या सोचे-विचारे किसी के प्रति अपनी राय बना लेते हैं, तो वह राय अक्सर अधूरी और पक्षपातपूर्ण होती है। यह स्थिति केवल हमारी सोच तक सीमित नहीं रहती, बल्कि जब हम अपने विचारों को दूसरों पर थोपने लगते हैं, तो यह एक नकारात्मक प्रवृत्ति का रूप ले लेती है।
समाज में यह प्रवृत्ति धीरे-धीरे एक बुराई या कुरुति के रूप में फैल रही है, जहाँ लोग बिना गहराई में जाए केवल सतही भावनाओं या अधूरी समझ के आधार पर निर्णय ले लेते हैं। सही विचार या स्वस्थ चिंतन तभी संभव है जब हम किसी भी विषय पर धैर्यपूर्वक सोचें, तर्क परखें और स्वयं में स्पष्टता लाएँ।
विचार का निर्माण केवल एक मानसिक क्रिया नहीं, बल्कि एक जिम्मेदारी है। यदि हम बिना विवेक के विचारों को जन्म देंगे तो वे न केवल दूसरों के लिए हानिकारक होंगे, बल्कि हमारे लिए भी आत्मसंघर्ष का कारण बनेंगे। यही कारण है कि किसी भी विचार को सृजित या स्थायी बनाने से पहले गहन चिंतन और आत्ममंथन आवश्यक है।
लेखक –
पवन दूबे, समाजसेवी, उत्तराखण्ड प्रदेश