अक्सर हम देखते हैं कि लोग दोस्ती या रिश्तों में भावनात्मक रूप से जुड़ जाते हैं। यह जुड़ाव कभी-कभी इतना गहरा होता है कि एक व्यक्ति सामने वाले के लिए हर परिस्थिति में खड़ा रहता है। लेकिन जब वही व्यक्ति खुद मुश्किल में होता है, तो अक्सर वही लोग किनारा कर लेते हैं, जिनसे संबल की उम्मीद होती है।
यहीं से शुरू होता है मन का वह बोझ, जिसे हम अवसाद कहते हैं। यह अवसाद शुरुआत में मानसिक चोट पहुंचाता है और धीरे-धीरे शारीरिक स्वास्थ्य को भी निगलने लगता है। हैरानी की बात यह है कि जब वही व्यक्ति, जो पीड़ा में डूबा है, अचानक सामने वाले को किसी कारण से जरूरी हो जाता है तो वह क्षणभर में अपनी पीड़ा को जैसे भूलकर, फिर से पहले की तरह उपलब्ध हो जाता है। मगर उसकी आत्मा के भीतर चल रही जंग कभी खत्म नहीं होती। यह आंतरिक युद्ध, यह अवसाद, किसी भी छोटी-सी उपेक्षा या असमर्थता से दोबारा सिर उठाता है। सामने वाला इसे कभी समझ ही नहीं पाता, और जहाँ उसे सहारा देना चाहिए वहाँ वह फिर किनारा कर जाता है। यही स्थिति कई बार इतनी गंभीर हो जाती है कि व्यक्ति जीवन से ही हाथ धो बैठता है।
हम सबको यह समझना चाहिए कि यदि कोई अपनी तकलीफें छुपाकर भी आपकी खुशी चाहता है, तो क्या आपको भी उसकी परिस्थिति में उसके साथ नहीं होना चाहिए? आखिर क्यों हमें उसी समय किनारा करना हो जब किसी को हमारे सहारे की सबसे ज्यादा जरूरत हो?
जिस दिन लोग रिश्तों में सच्ची जिम्मेदारी महसूस करने लगेंगे, जिस दिन भावनात्मक जुड़ाव के बाद परिस्थिति देखकर चयन करना छोड़ देंगे कि कहाँ साथ देना है और कहाँ किनारा करना है, उस दिन जीवन सच में संपूर्ण होंगे। तभी लोग सच्चे अर्थों में खुश रह पाएंगे।
बहुत आसान है किनारा करना: मुश्किल है सहारा बनना – पवन दूबे
RELATED ARTICLES