प्रथम विश्व युद्ध (1914-1918) एक ऐसा ऐतिहासिक घटना क्रम है जिसने पूरी दुनिया को प्रभावित किया, लेकिन भारत विशेष रूप से गढ़वाल क्षेत्र के वीर सैनिकों की बहादुरी ने इस युद्ध को विशेष रूप से यादगार बना दिया। हाल ही में फुलवारी में आयोजित एक साहित्यिक चर्चा में गढ़वाल के वीर सैनिकों की वीरता के बारे में लेखक देवेश जोशी की पुस्तक “गढ़वाल और प्रथम विश्व युद्ध” पर संवाद हुआ। इस चर्चा में साहित्यकार व पूर्व आईपीएस अधिकारी अनिल रतूड़ी ने गढ़वाल राइफल के जांबाज सैनिकों के योगदान और ब्रिटिश शासन पर इसके प्रभाव की विस्तृत जानकारी दी।
गढ़वाल राइफल का नाम लेते ही हमारे मन में उन नायकों की छवि उभरती है जिन्होंने अद्वितीय बहादुरी और साहस का परिचय दिया। दरबार सिंह नेगी और गब्बर सिंह नेगी जैसे बहादुर सैनिकों ने युद्ध के मैदान में अद्वितीय उपलब्धियां हासिल कीं। रतूड़ी जी ने बताया कि किस तरह दरबार सिंह नेगी को विक्टोरिया क्रॉस से सम्मानित किया गया। फ्रांस के अस्पताल में भर्ती जब बिर्टिश सम्राट ने खुशी से उनसे पूछा कि उनकी क्या इच्छा है, तो उन्होंने अपनी मातृभूमि के लिए दो महत्वपूर्ण मांगें रखी: कर्णप्रयाग में मिडिल स्कूल की स्थापना और ऋषिकेश से कर्णप्रयाग तक रेलवे लाइन का निर्माण। उनकी इस इच्छा का सम्मान करते हुए ब्रिटेन के सम्राट ने वायसराय को आवश्यक निर्देश दिए, जो इस बात का प्रमाण है कि युद्ध के मैदान में मिली सफलता का असर राजनीतिक और सामाजिक सुधारों पर भी था।
गब्बर सिंह नेगी ने भी अद्भुत साहस का परिचय दिया। जब उनके कमांडर युद्ध में शहीद हो गए, तो उन्होंने मोर्चा संभाला और दुश्मन के खिलाफ मोर्चा लेते हुए अपने सिपाहियों को प्रेरित किया। उनकी इस वीरता ने न केवल उनकी प्लाटून को सुरक्षित किया, बल्कि युद्ध के उन क्षणों को भी ऐतिहासिक बना दिया। भले ही वे भी बाद में शहीद हो गए, लेकिन उनके साहसिक कार्यों ने जर्मन सेना के सामने भारतीय सशस्त्र बलों की शक्ति को प्रस्तुत किया।
समर्थ सैनिकों की यह वीरता कई मायनों में ब्रिटेन के लिए प्रफुल्लित करने वाली थी। गढ़वाल राइफल की काबिलियत ने फ्रांस में जर्मनी पर बढ़त बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, जो युद्ध के परिदृश्य को बदलने में सहायक सिद्ध हुआ। इस प्रकार, गढ़वाल क्षेत्र के सैनिकों की वीरता न केवल उन्हें सम्मान दिलाने के लिए पर्याप्त थी, बल्कि यह भारतीय सशस्त्र बलों की क्षमताओं को भी विश्व स्तर पर दर्शाने का एक साधन बनी।
भारतीय समाज में युद्ध और बलिदान की धारणा की गहरी जड़ें हैं। इस संदर्भ में साहित्यकार और आईएएस अधिकारी ललित मोहन रयाल का सवाल महत्वपूर्ण है, जिसमें उन्होंने लेखक देवेश जोशी से पूछा कि क्या लोक से निर्थकता से युद्ध की अपेक्षा नहीं की जा सकती। जोशी का जवाब इस सवाल का तर्कसंगत विश्लेषण प्रस्तुत करता है, जिसमें वह समाज की मानसिकता पर प्रकाश डालते हैं। जोशी का बयान है कि “हम उस समाज से हैं जहाँ फ़ौज में जाने के लिए खुशी मनाई जाती है।” यह एक गहन संदेश है जिसमें समाज की उस मानसिकता को दिखाया गया है, जहाँ युद्ध को एक सम्मान और गर्व का विषय माना जाता है। यह खुशी सिर्फ सैनिक की व्यक्तिगत उपलब्धि नहीं है, बल्कि यह पूरे समुदाय की भावना भी व्यक्त करती है। पहाड़ की संस्कृति में, युद्ध को न केवल सुरक्षा का माध्यम माना गया है, बल्कि यह वीरता और बलिदान का प्रतीक भी है।
पूर्व कुलपति और प्रसिद्ध साहित्यकार सुधारानी पांडेय ने पुस्तक पर अपनी राय व्यक्त करते हुए कहा है कि इसमें इतिहास की जानकारी उस रूप में नहीं है, जैसे अपेक्षा की जा रही थी। उनका यह विचार पुस्तक की शोध पद्धति और सामग्री की गहराई से संबंधित है। पांडेय की इस टिप्पणी से यह स्पष्ट होता है कि सद्यः प्रकाशित पुस्तक ने शोध के पारंपरिक मानकों को पूरा नहीं किया है।पांडये जी ने कहा कि पुस्तक में दो महत्वपूर्ण तत्व प्रतीत होते हैं। पहला, वह सामग्री जो सैनिकों के एकत्र किए गए लेख। और दूसरा, गढ़वाली गीतों के माध्यम से की गई प्रस्तुतीकरण। यह दो पहलू पुस्तक को एक सांस्कृतिक और ऐतिहासिक दृष्टिकोण से समृद्ध करते हैं।
साहित्यकार शिव मोहन सिंह ने भी पुस्तक की चर्चा करते हुए गढ़वाल मूल के इतिहास को युद्ध के सिलसिले में महत्वपूर्ण बताया है। यहाँ यह समझना आवश्यक है कि युद्ध की घटनाओं का साहित्य में समावेश किस प्रकार इतिहास का दृष्टिकोण बदल सकता है। सिंह का यह अवलोकन इतिहास को न केवल कागज पर लिखी घटना के रूप में प्रस्तुत करता है, बल्कि इसे जीवित अनुभवों के जरिए पाठकों के सामने उपस्थित करता है।
महान गढ़वाली लोक गायक नरेंद्र सिंह नेगी ने भी विश्वयुद्ध की यादों को अपने गीतों में गाकर अमर बना दिया।
हालांकि इस गीत का सबसे पहले वर्णन
दिल्ली विश्वविद्यालय में प्रोफेसर व
कीर्तिनगर टिहरी के महान गढ़वाली लोक साहित्यकार रहे गोविंद चातक
की पुस्तक में मिलता है।
सात समोदर पार च जाण ब्वे जाज मा जौंलू कि ना
जिकुड़ी उदास ब्वे जिकुड़ी उदास
लाम मा जाण जर्मन फ्रांस
कनुकैकि जौंलू मि जर्मन फ्रांस
ब्वे जाज मा जौंलू कि ना।
हंस भोरीक ब्वे औंद उमाळ
घौर मा मेरू दुध्याळ नौन्याळ
कनुकैकि छोड़लू दुध्याळ नौन्याळ ब्वे जाज मा जॉलू कि ना।
सात समोदर पार..
फिर रतूड़ी जी ने भी
कुछ लाइनें बोली
बोला बोराणी क्या तेरु नोव छः
बोल बोराणी कख तेरु गौं छः
॥
एक दिन जब जरा
घाम छौ धार मां
रूमक पड़ै छः सारा संसार मां….
अंग्रेज़ों का सैन्य नीति में परिवर्तन और 1857 का विद्रोह
1857 का विद्रोह, जिसे भारतीय स्वतंत्रता की पहली लड़ाई के रूप में जाना जाता है, ने भारतीय सैनिकों की महत्वपूर्ण भूमिका को उजागर किया था। इस विद्रोह ने ब्रिटिश राज को यह समझाने में मदद की कि भारतीय सेना की शक्ति को नजरअंदाज करना उनके लिए नुकसानदायक हो सकता है। विद्रोह की असफलता के बाद ब्रिटिश शासन ने अपनी सैन्य नीति में महत्वपूर्ण परिवर्तन किए, जिसे “बाँटो और राज करो” की नीति के रूप में जाना जाने लगा।
ब्रिटिश राज ने इस नीति के तहत विभिन्न भारतीय जातियों को भेद करके उन्हें नियंत्रित रखने का प्रयास किया। उन्होंने विशेष रूप से कुछ जातियों को “मार्शल रेस” के रूप में पहचाना, जैसे कि सिक्ख, जाट, पठान, गोरखा, डोगरा, बलूची और गढ़वाली। ये जातियाँ युद्ध में सक्षम मानी गईं और इन्हें अलग-अलग पलटनों में संगठित किया गया। इसका उद्देश्य भारतीय सैनिकों के बीच जातीय और सांस्कृतिक भिन्नताओं का फायदा उठाकर उनके एकजुट होने की संभावनाओं को कमजोर करना था।
1914 में जब प्रथम विश्व युद्ध छिड़ा, तब ब्रिटिश साम्राज्य को जर्मनी और उसके सहयोगियों की सेनाओं द्वारा संकट का सामना करना पड़ा। इस समय ब्रिटिश सरकार को अधिक से अधिक संसाधनों की आवश्यकता थी, जिससे कि वे युद्ध में अपनी स्थिति मजबूत कर सकें। इसके बावजूद, एक दीर्घकालिक धारणा बनी रही कि भारतीय सैनिक यूरोप में श्वेत नस्ल की सेनाओं के मुकाबले में सक्षम नहीं थे। हालांकि, युद्ध की आवश्यकता की मजबूरी ने ब्रिटिश शासन को भारतीय “मार्शल रेस” की पलटनों को युद्ध में भेजने के लिए विवश किया। इस प्रकार गढ़वाल राइफल्स जैसी इकाइयों को भी यूरोपियन थियेटर में भेजा गया। यह घटना यह दर्शाती है कि कैसे ब्रिटिश राज ने अपनी रणनीतियों और नीतियों को बदलते समय के अनुसार विस्तारित किया, और कैसे उन्होंने भारतीय सैन्य ताकत का अधिकतम उपयोग करने की कोशिश की।
गढ़वालियों की पहचान और प्रथम विश्व युद्ध
प्रथम विश्व युद्ध ने न केवल वैश्विक राजनीति को प्रभावित किया, बल्कि अनेक स्थानों पर स्थानीय क्षेत्रों की पहचान को भी गहरा रूप दिया। भारत में, गढ़वाल क्षेत्र के सैनिकों ने विशेष रूप से अपनी वीरता के लिए एक महत्वपूर्ण स्थान हासिल किया। इससे पूर्व, गढ़वालियों की पहचान भारतीय सशस्त्र बलों में अनगिनत सैनिकों की पंक्तियों में छिपी हुई थी। हालांकि, इस युद्ध ने गढ़वालियों को एक अद्वितीय और विशिष्ट स्थान प्रदान किया, जो उनके साहस और बलिदान के प्रतीक के रूप में उभरा।
पुस्तक में कहा गया है कि , गढ़वाल राइफल्स की विशेष पहचान की शुरुआत नायक दरवान सिंह नेगी के साहस से हुई। उन्होंने 1914 में फ्रांस के फेस्टुबर्ट में अदम्य हिम्मत दिखाते हुए युद्ध में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उनके इस अद्वितीय साहस के लिए, उन्हें सम्राट जार्ज पंचम द्वारा “विक्टोरिया क्रॉस” से सम्मानित किया गया। यह पुरस्कार न केवल व्यक्तिगत गौरव का प्रतीक था, बल्कि यह गढ़वालियों के लिए एक नए युग की शुरुआत का संकेत भी था। दिसम्बर 1914 में विक्टोरिया क्रॉस जीतने वाले दरवान सिंह नेगी पहले भारतीय थे, और इस घटना ने गढ़वालियों को वैश्विक पहचान दिलाई। यह सम्मान केवल उनकी व्यक्तिगत वीरता का लक्षण नहीं था, बल्कि यह गढ़वाल समुदाय के साहस का भी प्रतीक बन गया।
इसके बाद, मार्च 1915 में नौव शेपल युद्ध में राइफलमैन गब्बर सिंह नेगी को उनके अदम्य साहस के लिए मरणोपरांत “विक्टोरिया क्रॉस” दिया गया। गब्बर सिंह की भूमिका ने एक बार फिर से गढ़वाल राइफल्स और गढ़वाल क्षेत्र को वैश्विक मानचित्र पर लाने में महत्वपूर्ण योगदान किया। इन सफलताओं ने साम्राज्य के भीतर गढ़वालियों की पहचान को न केवल गहरा किया, बल्कि उन्हें एक प्रेरणाश्रोत के रूप में प्रस्तुत किया।
इन घटनाओं के माध्यम से, गढ़वालियों ने सिद्ध कर दिया कि उनकी साहसिकता और बलिदान की गाथाएं केवल स्थानीय सीमाओं में सीमित नहीं हैं, बल्कि उन्होंने विश्व स्तर पर युद्ध के मैदान में अद्वितीय पहचान बनाई। प्रथम विश्व युद्ध मात्र एक सैन्य संघर्ष नहीं था; यह एक ऐसा मोड़ था जिसने गढ़वालियों को एक नए स्तर पर पहचान दिलाई।
प्रथम विश्व युद्ध ने गढ़वाली सैनिकों के जीवन में अनेक चुनौतीपूर्ण परिस्थितियाँ पेश की। उन्होंने न केवल अपने साहस और वीरता को साबित किया, बल्कि समाज में अपनी एक नई पहचान भी बनाई। इस प्रकार, युद्ध ने उन्हें वैश्विक पहचान दी, जो आज भी गढ़वाली समाज की सांस्कृतिक और ऐतिहासिक धरोहर का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है। गढ़वाली सैनिकों का साहस प्रकट करता है कि कैसे मानवता की कठिनाइयों का सामना करते हुए, उन्होंने अपनी पहचान को संरक्षित रखने और दुनिया के सामूहिक अनुभव में योगदान देने का कार्य किया।
प्रथम विश्वयुद्ध, जिसे मानव इतिहास के सबसे बड़े संघर्षों में से एक माना जाता है, ने न केवल देशों के बीच संघर्ष का बिन्दु प्रस्तुत किया, बल्कि कई वीरों की कहानियों को भी उजागर किया, जो उनकी शौर्य और साहस के लिए जाने जाते हैं। भारत से आए वीर सैनिकों, जो अपने अदम्य साहस और पराक्रम के लिए जाने जाते हैं, ने इस युद्ध में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। इनमें से कुछ प्रमुख नाम हैं सूबेदार दरवान सिंह नेगी, राइफलमैन गब्बर सिंह नेगी, लेफ्टिनेंट डब्ल्यू. डी. केनी, सूबेदार मेजर नैन सिंह चिनवाण, सूबेदार मेजर धूम सिंह चौहान, और ले० कर्नल नत्थू सिंह सजवाण। लेखक ने पुस्तक के आवरण में इन्हें स्थान दिया है।साथ ही 12 गढ़वाली लोक गीतों को जगह दी है।
लेखक देवेश जोशी मूल रूप से चमोली जिले के गुगली गांव के हैं। राजकीय इंटर मीडिएट कालेज डाकपत्थर में अंग्रेजी के लेक्चरर हैं । तुनवाला देहरादून में निवासरत हैं।
इस चर्चा से स्पष्ट होता है कि “गढ़वाल और प्रथम विश्व युद्ध” पुस्तक केवल ऐतिहासिक तथ्यों का संग्रह नहीं है, बल्कि यह हमारे उन नायकों की प्रेरणादायक गाथा है जिन्होंने अपने कर्तव्यों का पालन करते हुए देश और समाज के लिए अनगिनत बलिदान दिए। ऐसे चर्चाएँ हमारे लिए यह याद दिलाती हैं कि हमें अपनी विरासत और उन शहीदों की गाथाओं को सहेजकर रखना चाहिए, जिनकी वजह से हम आजादी और सम्मान का अनुभव कर रहे हैं।
शीशपाल गुसाईं