विकास के नाम पर की जा रही प्रकृति के साथ छेड़छाड़ एवं आम जनमानस को बेघर करने की घटनाएँ आज समाज एवं सरकार के संवेदनशीलता पर बड़ा सवाल खड़ा करती हैं। सरकारों की संवेदनहीनता न केवल आर्थिक या सामाजिक स्तर पर जनहित को प्रभावित करती है बल्कि पर्यावरण और भविष्य की सुरक्षा पर भी गंभीर खतरा उत्पन्न करती है।
विकास के नाम पर प्राकृतिक संसाधनों का अंधाधुंध दोहन, संरक्षित वृक्षों की कटाई, पहाड़ों का तोड़ना–काटना तथा कृषि भूमि पर निर्माण कार्य पर्यावरणीय असंतुलन पैदा करता है। सरकारें अक्सर प्राकृतिक आपदा को कुदरत की नाराजगी समझने में विफल रहती हैं; जबकि यह उनके ही असंतुलित फैसलों का परिणाम होती है। यदि प्रकृति के साथ खिलवाड़ बन्द नहीं हुआ तो आपदा की तीव्रता और आवृत्ति में वृद्धि होना तय है।
पन्तनगर कृषि विश्वविद्यालय जैसे संस्थानों के शोध केंद्रों, फसलों की भूमि, एवं वहां वर्षों से सेवा दे रहे लोगों को जब एयरपोर्ट विस्तार या अन्य परियोजनाओं के नाम पर बेघर करना पड़ता है, तो यह केवल विकास नहीं, बल्कि संवेदनहीनता भी है। इन कर्मचारियों द्वारा राजस्व में योगदान, किराया भुगतान, एवं शोध के क्षेत्र में सेवा को नकारना अत्यंत अनुचित है। उनके पुनर्वास या उचित विकल्प की व्यवस्था के बिना उन्हें उजाड़ना न्यायसंगत नहीं हो सकता।
सरकारों का दायित्व है कि वे विकास कार्य में जनभावना एवं प्रकृति दोनों का सम्मान करें। अक्सर देखा गया है कि संस्थानों के पास अतिरिक्त आवासीय परिसर होते हुए भी वर्षों से सेवा दे रहे कर्मचारियों को घर नहीं मिलता। आजादी के इतने वर्षों बाद भी हजारों लोग अपने घर के लिए संघर्षरत हैं, जो प्रशासनिक ढिलाई एवं नीतिगत स्वार्थ का परिणाम है।
संवेदनहीनता किसी भी सरकार को कमजोर बनाती है। प्रकृति के संरक्षण, आमजन के पुनर्वास, और जनभावनाओं का सम्मान करना शासन की प्राथमिक जिम्मेदारी है। अब समय है कि सरकारें भविष्य की चिंता कर योजनाएँ बनाएँ — ताकि विकास और प्रकृति का संतुलन बना रहे, और लोगों की पीड़ा को वास्तव में समझा जाए। तभी सच्चा विकास संभव है।
लेखक –
पवन दूबे
समाजसेवी, उत्तराखण्ड प्रदेश